बाकू । फ्रांस, रूस और अमेरिका के राष्ट्रपति ने अजरबेजान और आर्मेनिया के संघर्ष को अविलंब रोकने के लिए कहा है। लेकिन तुर्की ने तीनों महाशक्तियों की बात को नकारते हुए कहा है कि उनकी शांति प्रयासों के लिए जरूरत नहीं है। इन देशों की इस युद्ध में कोई भूमिका नहीं है। तुर्की के सीरिया और लीबिया से आतंकी गुटों को हिंसाग्रस्त क्षेत्र में भेजे जाने से हालात और बिगड़ने की आशंका पैदा हो गई है।
नागोरनो-कराबाख पर्वतीय क्षेत्र के विवाद पर नजर रखने के लिए 1992 में फ्रांस, रूस और अमेरिका ने मिंस्क ग्रुप बनाया था। 1991 से 1994 तक इलाके में चले युद्ध में 30 हजार लोग मारे गए थे। उस टकराव के बाद पहली बार छिड़े ताजा संघर्ष में सैकड़ों की संख्या में लोग मारे और घायल हुए हैं। जिस नागोरनो-कराबाख इलाके में संघर्ष छिड़ा है, वह अजरबेजान का इलाका है लेकिन उसकी बहुसंख्य आबादी आर्मेनियाई लोगों की है। टकराव की मुख्य वजह भी यही है।
फ्रांस, रूस और अमेरिका के संयुक्त बयान में सभी संबद्ध सेनाओं से तत्काल संघर्ष बंद करने के लिए कहा गया है। बयान में दोनों पूर्व सोवियत देशों से कहा गया है कि वे बिना देर किए आपस में अच्छी भावना लेकर बिना शर्त बातचीत शुरू करें और टकराव की वजहों का हल निकालें।
वहीं, दूसरी ओर संयुक्त बयान जारी होने से कुछ देर पहले तुर्की की संसद को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति तैयप एर्दोगन ने तीनों देशों की दखलंदाजी पर विरोध जताया। कहा, अमेरिका, रूस और फ्रांस ने 30 साल तक इस समस्या की अनदेखी की। इसलिए अब अगर वे संघर्षविराम की बात कह रहे हैं तो वह अस्वीकार्य है। अब संघर्षविराम तभी होगा जब आर्मेनियाई कब्जेदार नागोरनो-कराबाख इलाका खाली करके जाएंगे। एर्दोगन के इस बयान से नाटो और संघर्षरत इलाके में तनाव और बढ़ गया है।
उल्लेखनीय है कि रूस का ईसाई बहुल आर्मेनिया में सैन्य अड्डा है जबकि तुर्की के मुस्लिम बहुल अजरबेजान से अच्छे रिश्ते हैं। वैसे रूस के भी अजरबेजान से अच्छे रिश्ते हैं, इसी के चलते वह दोनों देशों के बीच टकराव नहीं चाहता।
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