– गिरीश्वर मिश्र
जीवन व्यापार में भाषा की भूमिका सर्वविदित है। मनुष्य के कृत्रिम आविष्कारों में भाषा निश्चित ही सर्वोत्कृष्ट है। वह प्रतीक (अर्थात कुछ भिन्न का विकल्प या अनुवाद) होने पर भी कितनी समर्थ और शक्तिशाली व्यवस्था है इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं है जो भाषा से अछूता हो। जागरण हो या स्वप्न, हम भाषा की दुनिया में जीते हैं। हमारी भावनाएं, हास-परिहास, पीड़ा की अभिव्यक्तियों और संवाद को संभव बनाते हुए भाषा सामाजिक जीवन को संयोजित करती है। उसी के माध्यम से हम दुनिया देखते और रचते भी हैं। भाषा की बेजोड़ सर्जनात्मक शक्ति साहित्य, कला और संस्कृति के अन्यान्य पक्षों में प्रतिबिम्बित होती है। इस तरह भाषा हमारे अस्तित्व की सीमाएं तय करती चलती है।
विभिन्न प्रकार के ज्ञान-विज्ञान के संकलन, संचार और प्रसार के लिए भाषा अपरिहार्य हो चुकी है। भाषा के आलोक से ही हम काल का भी अतिक्रमण कर पाते हैं और संस्कृति का प्रवाह बना रहता है इसलिए यह अतिशयोक्ति नहीं है कि भाषा का वैभव ही असली वैभव और आभूषण है- वाग्भूषणम् भूषणम्। वाक् की शक्ति को भारत में बहुत पहले पहचान लिया गया था और वेद के वाक्सूक्त में उसका बड़ा विस्तृत विवेचन मिलता है। परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी आदि वाक् प्रस्फुटन के विभिन्न स्तरों का भी सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। शब्द की शक्ति को बड़ी बारीकी से समझा गया है और भाषा को लक्ष्य कर जो चिंतन परम्परा शुरू हुई वह पाणिनि द्वारा व्यवस्थित हुई और आगे चलकर उसका बड़ा विस्तार हुआ। शिक्षा, व्याकरण, काव्य शास्त्र, नाट्य शास्त्र तथा तंत्र आदि में भाषा के प्रति व्यापक, गहन और प्रामाणिक अभिरुचि मिलती है।
ध्वनि रूपों से गठित वर्णमाला में अक्षर (अर्थात जो अक्षय हो!) होते हैं और शब्द ब्रह्म की उपासना का विधान है। इन सबको देखकर यही लगता है कि भारतीय मनीषा भाषा को लेकर सदा गंभीर रही है और इसी का परिणाम है कि सहस्राधिक वर्षों से होते रहे विदेशी आक्रांताओं के प्रहार के बावजूद यह ज्ञान राशि अभी भी जीवित है। इसकी उपादेयता और रक्षा को लेकर चिंता व्यक्त की जाती है पर हमारी भाषानीति और शिक्षा के आयोजन में अभी भी जरूरी संजीदगी नहीं आ सकी है। इसका स्पष्ट कारण हमारी औपनिवेशिक मनोवृत्ति है जो आवरण का कार्य कर रही है और जिसे हम अकाट्य नियति मान बैठे हैं। इसका परिणाम यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में अभी भी स्वाधीनता और स्वराज्य हमसे कोसों दूर है। भाषा और संस्कृति साथ-साथ चलते हैं। यदि सोच-विचार एक भाषा में करें और शेष जीवन दूसरी भाषा में जिएं तो भाषा और जीवन दोनों में ही प्रामाणिकता क्षतिग्रस्त होती जायगी। दुर्भाग्य से आज यही घटित हो रहा है। दो फांके का जीवन जीने के लिए हम सब अभिशप्त हो चले हैं। ऐसे में एक विभाजित मन वाले संशयग्रस्त व्यक्तित्व की रचना होती है।
शिक्षा क्षेत्र की जड़ता और उसकी सीमित उपलब्धियों को लेकर सरकारी और गैर सरकारी प्रतिवेदनों में बार-बार चिंता जताई गई है। समस्या के विकराल होते जाने को लेकर उपज रहे आसन्न संकट की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है। अब बच्चे अधिक संख्या में शिक्षालय में तो जाते हैं पर वहां टिकते नहीं हैं और जो टिकते भी हैं उनका सीखना बड़ा कमजोर हो रहा है (वे अपनी कक्षा के नीचे की कक्षा की योग्यता नहीं रखते)। ऊपर से उनके सीखने के लिए भारी भरकम पाठ्यक्रम लाद दिया गया है, जिसे ढोना (भौतिक और मानसिक दोनों ही तरह से) भारी पड़ रहा है। यह सब एक खास भाषाई संदर्भ में हो रहा है।
आज की स्थिति में अंग्रेजी भाषा नीचे से ऊपर शिक्षा के लिए मानक के रूप में प्रचलित और स्वीकृत है जबकि हिंदी समेत अन्य भाषाएं दोयम दर्जे की हैं। यह मान लिया गया है कि सोच-विचार और ज्ञान-विज्ञान के लिए अंग्रेजी ही माता-पिता रूप में है और उत्तम शिक्षा उसी में दी जा सकती है। अंग्रेजी के प्रति मोह उसे जीवन के अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्रों में श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा की कसौटी माने जाने के कारण है। कई भद्र लोग भारतीय भाषाओं के साथ अजनबी बने रहने को ही अपना गुण मानते हैं। इस स्थिति में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति विकर्षण या तटस्थता का भाव विकसित होता है। अंग्रेजी की व्यूह-रचना को देश-विदेश के अनेक स्रोतों से सहयोग और समर्थन मिलता है और भारतीय भाषाओं को परे धकेल दिया जाता है। जहां अंग्रेजी सीखने और सिखाने की कक्षाओं और प्रशिक्षण के विज्ञापन हर शहर में मिलेंगे, भारतीय भाषाओं के प्रति वह ललक नहीं है।
अंग्रेजी का घनघोर पूर्वाग्रह गैर अंग्रेजी पृष्ठभूमि वाले विद्यार्थियों के लिए सीखने की प्रक्रिया को अनुवादमूलक और सीखने के प्रति दृष्टिकोण को रटन और पुनरुत्पादन की ओर ले जाता है। सीखने वाले में मौलिकता, सृजनशीलता और आत्मनिर्भरता के भाव कमजोर पड़ते जाते हैं। यही नहीं भाषाई घनचक्कर में अर्थ का अनर्थ होता रहता है। अब हम धर्म को ‘रेलीजन’ और सेकुलरिज्म को ‘धर्मनिरपेक्षता’ के रूप में धड़ल्ले से प्रयोग में लाते हैं। ऐसे ही आत्मन ‘सोल’ हो जाता है। यह सब करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि संस्कृतिविशेष में जन्मे और फले-फूले विचार और प्रत्यय मूल रूप में ही ग्राह्य होते हैं। संस्कार, रस, पुरुषार्थ, भक्ति, स्वास्थ्य, चित्त और ब्रह्मन् आदि पदों का शाब्दिक अंग्रेजी अनुवाद अर्थ की हानि ही करता है। परंतु हमारी दुचित्ती सोच गलत अनुवाद में भी शामिल होती है। ऐसे में यदि शोधकार्य में नकल की प्रवृत्ति बढ़े तो वह स्वाभाविक होगी।
अंग्रेजी के लिए मानसिक दबाव की जड़ें अपने में, अपनी भाषा में, अपनी संस्कृति में आत्मविश्वास की कमी और तुलनात्मक दृष्टि से हीनता की ग्रंथि के कारण है जो अंग्रेजी शासन में भारतीय मानस में बिठाई गई थी और जिसे हमने अपनी प्रकृति का सहज अंग मान लिया। अब हमारी अपनी अज्ञानता इतनी बढ़ गई है कि भारतीय विचार को हम मूल स्रोत से नहीं जान पाते। उसे अंग्रेजी में लिखकर प्रस्तुत होने पर ही समझते हैं और प्रामाणिक मानते हैं। अपनी भाषा के माध्यम से संस्कृति के सौंदर्य का जो स्वाद मिलना संभव होता उससे वंचित होकर हम कई दृष्टियों से विपन्न होते हैं। इसे ध्यान में रखकर नई शिक्षा नीति में भाषा के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हुए प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा को माध्यम रखने का निश्चय किया है। यह एक प्रशंसनीय निर्णय है।
भारतीय भाषाओं के प्रति उदासीन दृष्टिकोण से सांस्कृतिक विस्मरण और अपनी पहचान खोने का भी खतरा बढ़ रहा है। दो तरह की दुनिया के बीच (एक अंग्रेजी वाली काल्पनिक और दूसरी अपने घर और पास-पड़ोस वाली) संतुलन बनाना मुश्किल हो जाता है। साथ ही शैक्षिक विकास की दृष्टि से बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा यदि उनके घर की भाषा या मातृभाषा में दी जाती है तो विषय में प्रवेश सरल और रुचिकर तो होगा ही वह संस्कृति को भी जीवंत रखेगा। उनकी सामाजिक भागीदारी, लगाव और दायित्व बोध में भी बढ़ोत्तरी होगी। अपनी भाषा सीखते हुए और उस माध्यम से अन्य विषयों को सीखना सुखद होगा। मसलन सामाजिक विज्ञान, पर्यावरण और इससे जुड़े विषयों में भारत से परिचय, भारत की भाषा में निश्चित ही सरल होगा और सीखने के प्रति चाव पैदा करेगा। अध्ययन विषय के रूप में अंग्रेजी और अन्य भाषाओं को सीखने की व्यवस्था भिन्न प्रश्न है। विद्यार्थी की परिपक्वता के अनुसार इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। स्कूल, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय सभी स्तरों पर भारतीय भाषाओं का अधिकाधिक उपयोग हितकर होगा।
शिक्षा के परिसर भाषिक बहुलता के स्वागत के लिए तत्पर होने चाहिए। इसके लिए स्तरीय सामग्री उपलब्ध कराना आवश्यक होगा। इसे समयबद्ध ढंग से युद्धस्तर पर करना होगा। कहना न होगा कि सभी प्रकार की नौकरी और रोजगार में बिना किसी भेदभाव के भारतीय भाषाओं को स्थान देना आवश्यक है। व्यावहारिक स्तर पर भाषा-शिक्षण में कितनी गिरावट आई है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश की हाईस्कूल की परीक्षा में कई लाख छात्र हिंदी में फेल हुए हैं। शिक्षा की भाषा यानी माध्यम के रूप में मातृभाषा ही संगत है और इसके लिए भाषा की शिक्षा को वही महत्व मिलना चाहिए जो अन्य विषयों को मिलता है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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