अयोध्या (Ayodhya) । राममला (Rammala) अपने दिव्य और भव्य मंदिर में विराजित हो चुके हैं। आज उनकी प्राण प्रतिष्ठा (Prana Pratistha) भी हो जाएगी। पूरा देश राममय हो चला है। आस्था अविरल बह रही है…हर चेहरे पर संतृप्ति का भाव है। इन्हीं में से एक हैं बीआर मणि (BR Mani)…राष्ट्रीय संग्रहालय के महानिदेशक और भारतीय विरासत संस्थान के कुलपति। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अतिरिक्त महानिदेशक भी रहे।
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले में एएसआई की जिस रिपोर्ट के आधार पर फैसला सुनाया था, वह मणि के नेतृत्व में ही तैयार हुई थी। वह कहते हैं कि 2003 में राम जन्मभूमि पर खोदाई शुरू हुई तो हर सबूत मंदिर के मिल रहे थे, मगर विवादित ढांचे से जुड़ा बाबरी पक्ष सिर्फ कुतर्क करता रहा। बिना आधार के प्रमाणों का खंडन करता रहा। उत्खनन में कई मूर्तियां और 50 आधार स्तंभ (पिलर) मिले थे। पिलर एक ही लाइन में थे। पानी निकलने का रास्ता भी उत्तर दिशा में बना था, जैसा कि सिर्फ मंदिरों में होता है। बीआर मणि ने पंकज मोहन मिश्र से बातचीत में अयोध्या के उत्खनन से जुड़े कई ऐसे तथ्यों को सामने रखा जो अभी तक अनसुनी थीं…
जीपीआर से उत्खनन में कितनी मदद मिली..?
खोदाई से दो माह पहले अयोध्या में जीपीआर (ग्राउंड पेनाट्रेटिंग रडार) सर्वे कराया गया था। वह भी एएसआई ने ही कराया था। उसमें ही पता चला था कि नीचे ढांचा है। अयोध्या में मिले सारे पिलर एक ही लाइन में थे, यह भी मंदिर के होने का एक बड़ा प्रमाण था। बाद में श्रीराम मंदिर के निर्माण के दौरान कई और भी पुरावशेष मिले, जिससे मंदिर होने की बात की और भी ज्यादा पुष्टि हुई। इसमें बहुत सारे पिलर, शिवलिंग, आमलक आदि शामिल है।
कैसे प्रमाणित हुआ अयोध्या में राममंदिर ही था?
12 मार्च, 2003 से खोदाई शुरू की गई। इसमें पांच पंक्ति में पिलर मिले। प्रत्येक पंक्ति में 17 पिलर थे। इस तरह से कुल 85 पिलर होते हैं, जबकि ठीक गर्भगृह में विवादित ढांचे के बिल्कुल बीच वाली जगह पर कोई पिलर नहीं था। यह वही जगह है, जहां रामलला विराजमान थे। इस तरह से कुल पिलर की संख्या ठीक 84 होती है और 84 व 108 जैसे अंक मंदिरों के लिए बहुत शुभ माने जाते हैं। 14वीं शताब्दी की अयोध्या महात्म्य नामक पुस्तक में 84 स्तंभ के मंदिर का उल्लेख मिलता है। बहुत सारे मंदिरों के निर्माण में उस वक्त और आज भी 84 व 108 की संख्या का विशेष ध्यान रखा जाता है। इसके अलवा बहुत सारी ऐसी मूर्तियां व डेकोरेटेड आर्टिकल मिले, जो सिर्फ मंदिरों में उपयोग होते हैं, जैसे पत्रवल्लरि (पात्र जिसमें फूल-पत्तियां बनी होती हैं), कपोतपालिका (कबूतरों को पानी देने वाला पात्र)। मगरमच्छ के मुंह वाला मकरमुख मिला, जिसका इस्तेमाल मस्जिद के फाउंडेशन में किया गया था। इसे मंदिर से उठाकर लगाया गया था।
विष्णु हरि शिलालेख के बारे में भी बताएं?
विवादित ढांचा बनाते समय उसमें विष्णु हरि शिलालेख का उपयोग किया गया, जो मंदिर का हिस्सा था। ढांचे को तोड़ा गया, तो उसमें यही शिलालेख मिला था। सीमित इलाके में खोदाई की अनुमति थी। इसलिए हमें 50 पिलर ही मिले। अगर पूरे इलाके में खोदाई की इजाजत मिलती, तो संभवतः सभी पिलर मिल जाते।
और कौन-कौन से तथ्य थे, जिससे मंदिर होने के आधार तक पहुंचे?
कोर्ट से कुल 2.7 एकड़ में खोदाई का आदेश मिला था, जिसमें से रामलला की मूर्ति के 10 फुट के दायरे को छोड़कर खोदाई की गई थी। पांच गुणा पांच मीटर के 90 गड्ढे बनाए गए थे। इसमें से दो गड्ढे ऐसे थे, जिसमें 12-13 मीटर की गहराई तक गए थे। इनमें जहां तक प्राकृतिक मिट्टी थी, वहां तक खोदाई की थी। वहां पर तीन और मंदिरों के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें से एक मंदिर 11वीं शताब्दी में बना होगा। उसको कुछ समय बाद तोड़ा गया या डैमेज हुआ था। उसके बाद, वहीं पर 50-100 साल के अंदर फिर एक मंदिर का निर्माण मिला। यह वही मंदिर था, जिसमें 60 मीटर की दीवार का निर्माण किया गया था। इसके अलावा नौवीं-दसवीं शताब्दी के भी मंदिर का एक अवशेष मिला है, जो वृत्ताकार (सर्कुलर) था। यह अत्यंत प्राचीन था, जो उस समय सामान्य तौर पर नहीं बनाया जाता था। इस तरह के मंदिरों की शुरुआत नौवीं-दसवीं सदी के आसपास शैव आचार्यों ने की थी, जिनका संप्रदाय मत मयूर है। मूर्ति पर अभिषेक किए हुए पानी निकलने का रास्ता मंदिरों में हमेशा ही उत्तर की तरफ होता है। अयोध्या उत्खनन में भी उत्तर की तरफ पानी निकलने का प्रमाण मिला था।
कार्बन डेटिंग से क्या कुछ पता चला…?
विवादित ढांचे के फ्लोर से जली हुई लकड़ी व कार्बन के अन्य सैंपल मिले थे। उसका विश्लेषण कराया गया तो 1540 से कुछ वर्ष पहले या बाद के होने की जानकारी मिली। यह सभी को पता है कि सन 1528 में वह ढांचा बना था। इस तरीके से डेट मिलती रही। सबसे रोचक बात यह है कि आज तक लोग यह जानते थे कि अयोध्या मंदिर का निर्माण 700 ईसा पूर्व की शुरुआत में हुआ था। इस आधार पर लोगों ने यह भी कहा कि रामायण बाद में हुआ, महाभारत पहले हुआ। इस पर बड़ा हंगामा मचा था। हमारी रिपोर्ट आई, तो सबसे पुरानी 1680 ईसा पूर्व की डेट आई। इसके अलावा सात और डेट आई जो 680 ईसा पूर्व के पहले की थी। इसमें एक उत्तरी कृष्ण मार्जिद मृदभांड (एनवीपीडब्ल्यू) मिला, जो एक पॉटरी की तरह था। यह 680 ईसा के आसपास बनाई जाती थी। बाद में दूसरे साइट्स पर भी इसी तरह की 1200, 1300, 1500 ईसा पूर्व के आसपास की डेट मिली। इस तरीके से लोगों की आम धारणा गलत साबित हुई। इतिहासकार 1500 ईसा पूर्व से 500-600 ईसा पूर्व के कालखंड को डार्क एज मानते थे। डार्क एज का मतलब इस समय की कोई चीजें उपलब्ध नहीं है। जब हमें 1200, 1300, 1500 ईसा पूर्व की चीजें मिली थीं तो यह डार्क एज होने की बात भी गलत साबित हुई।
खोदाई में मंदिर के इतने सारे प्रमाण मिले, तो फिर बाबरी पक्ष ने अपनी बात को मजबूत रखने के लिए क्या तर्क रखे थे..?
वह सिर्फ हमारी बातों का खंडन करते थे। उदाहरण के लिए वृत्ताकार (सर्कुलर) मंदिर होने की बात जब हमने रखी तो बाबरी पक्ष ने कहा कि यह मंदिर नहीं बौद्ध स्तूप रहा होगा। ऐसे में हमने कहा कि बौद्ध स्तूप पूरा भरा होता है, उसमें पत्थर व अन्य सामग्रियां होती हैं। उसमें बैठने की जगह नहीं होती है और यहां पर सिर्फ पिलर व दीवार हैं।
अदालत ने खोदाई के लिए 15 दिन दिए थे, आपने तीन बार समयसीमा बढ़वाई। ऐसा क्यों?
कोर्ट की तरफ से कई दिशा-निर्देश तय किए गए थे, जिसमें से प्रमुख था एक माह की खोदाई कर 15 दिन के अंदर रिपोर्ट देना। इस पर हमने कहा कि यह समय अपर्याप्त है। करीब तीन एकड़ के क्षेत्र को एक माह में खोदना आसान नहीं था। इसके बाद कोर्ट ने हमारी मांग पर तीन बार समयसीमा बढ़ाई। मार्च में खोदाई शुरू की गई थी, जो अगस्त के पहले सप्ताह तक चली थी। अगस्त के तीसरे सप्ताह में रिपोर्ट सौंपी गई थी। बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट, लखनऊ से कार्बन डेटिंग कराई गई थी, जिसमें 15 सैंपल भेजे गए थे। वहीं, एएसआई की देहरादून स्थित साइंस ब्रांच से भी नमूनों का विश्लेषण कराया गया।
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