उज्जैन। केंद्र सरकार से पिछले तीन माह से टीबी की दवाओं की आपूर्ति नहीं हो पा रही है। बताया गया कि कंपनियों के पास दवाएँ बनाने के लिए कच्चा माल उपलब्ध नहीं हैं, जिसके चलते यह समस्या आ रही है। एक तरफ सरकार ने गंभीर बीमारी टीबी मुक्त करने का लक्ष्य रखा है, वहीं इस बीमारी की दवाइयों आपूर्ति नहीं होने के कारण उज्जैन सहित प्रदेश के लगभग 70 हजार टीबी रोगियों पर दवाओं का असर कम होने से ड्रग रजिस्टेंट होने का खतरा बढ़ गया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के नेशनल टीबी डिवीजन से टीबी की दवाओं की आपूर्ति पिछले तीन माह से नहीं हो रही है।
बताया जा रहा है कि यह दवाएँ मात्र तीन कंपनियाँ ही बनाती हैं लेकिन उनके पास कच्चा माल दवाएँ बनाने का पाउडर उपलब्ध नहीं होने के कारण दवाएँ नहीं बन पा रही हैं। पिछले वर्ष सितंबर से ही दवाओं की कमी हो रही थी, पर इस वर्ष फरवरी से पुराना स्टॉक खत्म होने के कारण उज्जैन सहित मध्य प्रदेश और देशभर में दवाइयों की कमी और बढ़ गई है। अब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और राज्य सरकारों के दबाव के बाद कंपनियों ने दवाएँ बनाना फिर से शुरू की है, पर यह जरूरत का 10 प्रतिशत भी नहीं हैं। प्रदेश में बच्चों के लिए उपयोग होने वाली टीबी की दवाओं की मात्रा बढ़ाकर बड़ों को दी जा रही है, वह भी मात्र एक-एक सप्ताह के लिए। फिक्स डोज कांबिनेशन (एफडीसी) तीन और चार दवाओं की आपूर्ति नहीं हो रही है। यह टीबी की प्रारंभिक दवाएं हैं जो कुल रोगियों में लगभग 92 प्रतिशत को दी जाती है। बाकी 8 प्रतिशत टीबी रोगियों के लगभग 7 प्रतिशत मल्टी ड्रगरेसिस्टेंट (एमडीआर) और एक प्रतिशत के आसपास एक्सट्रीम ड्रग रेजिस्टेंट (एक्सडीआर) वाले होते हैं। इन्हें एफडीसी-3 और एफडीसी-4 के स्थान पर दूसरी दवाएँ दी जाती हैं। केंद्र से आपूर्ति नहीं होने पर मध्य प्रदेश पब्लिक हेल्थ सप्लाई कॉरपोरेशन ने भी दवाओं की आपूर्ति के लिए कंपनियों से दर अनुबंध किया। इसमें भी उन्हीं कंपनियों ने भाग लिया जो केंद्र को दवाएँ आपूर्ति करती हैं, पर उत्पादन कम होने के कारण अभी तक आपूर्ति नहीं की। कंपनियों ने कहा है कि पहले केंद्र सरकार को आपूर्ति की जाएगी। सरकार ने भारत को 2025 तक टीबी से मुक्त करने का लक्ष्य रखा है, पर मप्र सहित देशभर में दवाओं की किल्लत से इस लक्ष्य को पाने में मुश्किल आ सकती है। इस लक्ष्य को पाने के लिए हर राज्य को अधिक से अधिक रोगी खोजने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है। अनुमान है कि प्रति एक लाख आबादी पर टीबी के 216 रोगी होते हैं, पर कोई राज्य इस लक्ष्य के पास तक भी नहीं पहुँच रहा है, हालांकि अब टीबी मुक्त भारत बनाने के लिए पहले की तुलना नए रोगी अधिक खोजे जा रहे हैं, जिससे अधिक मात्रा में दवाओं की आवश्यकता पड़ रही है, पर मिल नहीं रहीं। चिकित्सकों के अनुसार टीबी के मरीजों को शुरू से एफडीसी-4 या एफडीसी-3 दवा दी जाती है। एफडीसी-चार में आइसोनियाजिड, रिफैम्पिसिन, एथमब्यूटोल और पाइराजिऩामाइड दवाएँ मिश्रित रहती हैं। एफडीसी-3 में आइसोनियाजिड, रिफैम्पिसिन, एथमब्यूटोल का मिश्रण (कांबिनेशन) दिया जाता है। शुरू के छह माह तक लगातार यह दवाएँ चलती हैं। इसमें एक दिन का भी अंतर होने पर मरीज की बीमारी एमडीआर में बदलने का खतरा रहता है। एमडीआर टीबी को ठीक करने के लिए फिर उसे लंबे समय तक 7 दवाओं के मिश्रण वाली दवा दी जाती है। इस मामले में डॉ. पंकज जैन एमडी मप्र पब्लिक हेल्थ सप्लाई कॉरपोरेशन ने बताया कि दवाएँ खरीदने के लिए कंपनियों से दर अनुबंध किया है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की ओर से खरीदी के आर्डर भी दिए गए हैं, पर उत्पादन कम होने के कारण आपूर्ति नहीं हो पा रही हैं। दो-तीन कंपनियाँ ही देश में यह दवाएँ बनाती हैं। इस कारण दिक्कत आ रही है लेकिन शीघ्र ही आपूर्ति शुरू हो जाएगी।
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