भोपाल। प्रदेश की दमोह विधानसभा सीट (Damoh Assembly Seat) पर 17 अप्रैल को हुए विधानसभा उपचुनाव के परिणाम 2 मई को आएंगे। इससे पहले भाजपा (BJP) और कांग्रेस (Congress) दोनों पार्टियां अपनी-अपनी जीत के दावे कर रही हैं। लेकिन दोनों पार्टियों में असमंजस देखा जा सकता है। इसकी वजह है मतदाताओं को वोटिंग (Voting) से पहले का मौन। और अब वोटिंग (Voting) के बाद जो आंकड़े आ रहे हैं वह चौकाने वाले हैं। क्योंकि विधानसभा क्षेत्र के करीब 45 हजार मतदाताओं ने मतदान नहीं किया है। माना जा रहा है की यही वोटर्स (Voters) हार-जीत का समीकरण बदलेंगे। गौरतलब है कि दमोह सीट (Damoh Seat) पर 60 प्रतिशत वोट ही पड़े। इनमें से 53 प्रतिशत ही शहर में। जबकि राहुल सिंह (Rahul Singh) को लेकर शहर में जो विरोध देखा गया, वह वोट (Vote) में बदलते नहीं दिखा। शहर के करीब 45 हजार वोटर्स (Voters) ने मतदान ही नहीं किया, इसी ने सभी समीकरण पलट दिए।
भाजपा की मजबूत स्थिति
मतदान के बाद अभी तक जो आकलन सामने आया है उसके अनुसार प्रदेश में भाजपा की एक और सीट बढ़ सकती है। एग्जिट पोल में यही निकलकर आ रहा है। दमोह विधानसभा उपचुनाव में भाजपा के कैंडिडेट राहुल सिंह लोधी जीत सकते हैं। इसके पीछे तीन बड़े फैक्टर हैं। पहला- मप्र में स्पष्ट बहुमत की सरकार का फायदा। दूसरा- गांवों में पार्टी का विरोध नहीं। तीसरा- भाजपा संगठन की चुनाव लडऩे की रणनीति। पहले फैक्टर को समझना बहुत आसान है कि उपचुनाव की इस सीट को जीतने के लिए मप्र सरकार के कई मंत्रियों ने यहां डेरा डाल दिया था। इसमें मंत्री गोपाल भार्गव, भूपेंद्र सिंह सबसे बड़े चेहरे थे। इनसे न केवल कथित दबाव-प्रभाव का मैनेजमेंट बनाने पर काम किया, बल्कि सामाजिक वोटों का जिम्मा भी इन्हीं ने संभाला। अब दूसरा फैक्टर..! दरअसल, दमोह शहर में कांग्रेस का दलबदलू कार्ड हावी हो रहा था। कोरोना काल में भी पार्टी को विरोध झेलना पड़ रहा था। इस कारण पार्टी ने तुरंत लाइन बदली और पूरी ताकत गांवों पर झोंक दी। वहां ये दोनों ही फैक्टर प्रभावी नहीं थे। इसके लिए मंत्रियों को तैनात किया गया।
शहर से ज्यादा वोट गांवों में पड़े
भाजपा के लिए यह सुखद भी है क्योंकि इस बार शहर से ज्यादा वोट गांवों में पड़े हैं। शहर में वोटिंग कम होना भी ‘आक्रोश का वोट कम पडऩाÓ उसी के पक्ष में जाते दिख रहा है। गांवों में 64 प्रतिशत के मुकाबले शहर में वोटिंग प्रतिशत 53 ही रहा। तीसरा फैक्टर रणनीति का है। जयंत मलैया जैसे दिग्गज नेता की सीट पर कांग्रेस से आए प्रत्याशी को लड़ाना भी भाजपा के लिए कम मुश्किल वाला नहीं था। पार्टी ने मलैया को मनाने की कोशिशें जरूर कीं, लेकिन आक्रामक तरीके से। बेटे सिद्धार्थ मलैया को भविष्य के ख्वाब दिखाकर यह भी जता दिया कि आगे उन्हें अच्छे दिन नहीं चाहिए क्या? पार्टी की दोधारी पॉलिटिक्स से भितरघात का संशय खत्म हो गया। बेटे के भविष्य की खातिर मलैया खुद राहुल सिंह के चुनाव प्रचार पर निकल पड़े तो सबसे ज्यादा विरोध वाले शहर दमोह की कमान सिद्धार्थ को सौंप दी। बीच चुनाव में हुए इस रणनीतिक फैसलों ने एक वक्त आगे बताई जा रही कांग्रेस पिछड़ते दिख रही है। कांग्रेस के प्रत्याशी अजय टंडन ने आक्रामक तरीके से चुनाव लड़ा, लेकिन उनके पास मजबूत फौज की कमी नजर आई।
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