कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअत से उछालो यारो।
दुष्यंत कुमार के इस मशहूर शेर को बैतूल के चार अज़ीज़ दोस्तों ने जि़ंदगी का मक़सद बनाया और उस मक़सद को जनपरिषद जैसे इंटरनेशनल इदारे की शकल दे दी। सन 1988 में रामजी श्रीवास्तव बैतूल में दैनिक भास्कर का ब्यूरो देखते थे। आमतौर से क़स्बाई सहाफियों (पत्रकार) में पढऩे लिखने का कम और पत्रकार की ठसक से ज़्यादा लेना देना होता है। उस वखत तो अखबार के एजेंट ही उनके रिपोर्टर हुआ करते थे। लेकिन रामजी श्रीवास्तव उस भेड़चाल से अलग थे। कालिज में ही उन्हें हिंदी पे उम्दा कमांड था। लिहाज़ा बैतूल से वो जो भी खबरें भास्कर में भेजते उनमे ज़्यादा कांट छांट करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। भास्कर के संपादक महेश श्रीवास्तव ने भी उनके हुनर को संवारा। रामजी 22 साल तक भास्कर के ब्यूरो रहे। उनके दिल मे अपनी अलहदा पेचान बनाने का जुनून भोत था। लिहाज़ा कोई 32 बरस पेले इंन्ने अपने दोस्त शंकर यादव, रवि त्रिपाठी और बलराम साहू के साथ एक ऐसी तंज़ीम बनाने का तहैया करा के जिससे इनकी मआशरे में अलग पेचान बने। इन चार यारों ने बैतूल में जो तंज़ीम बनाई जो आज पूरी दुनिया मे जनपरिषद के नाम से जानी जाती है। इब्तिदाई दौर में जनपरिषद ने बैतूल और अतराफ़ के गांवों में हेल्थ केम्प, छोटे पैमाने पे वर्कशाप और सेमिनार मुनक़्क़ीद किये। इसमे जि़ले के अफसरों को बुलाया। इससे जनपरिषद की अलग पहचान तो बनी, बाकी वो सिर्फ बैतूल तक ही महदूद (सीमित) रही। रामजी और इनके दोस्तों के दिल में जनपरिषद को कुलहिन्द लेवल पे क़ायम करने की थी। सो, रामजी ने बैतूल से भोपाल आने का फैसला किया। यहां सहाफत के साथ ही जनपरिषद के काम को आगे बढ़ाते रहे। इतने सालों की मेहनत का नतीजा ये है साब के आज जनपरिषद के हिंदुस्तान के 16 राज्यों में 183 चेप्टर काम कर रहे हैं। इस इदारे के 3800 मेम्बर हैं।
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