श्रीनगर । जम्मू कश्मीर (Jammu and Kashmir) के इतिहास में 1987 का विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) बेहद विवादित माना जाता है। कहा जाता है कि इस इकलौते चुनाव ने जम्मू कश्मीर की तकदीर हमेशा के लिए बदल दी। इसके बाद ही खासतौर से घाटी में बंदूकों की एंट्री हुई। बता दें कि केंद्र शासित प्रदेश जम्मू कश्मीर में एक दशक के बाद विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। जम्मू-कश्मीर में 18 सितंबर से एक अक्टूबर के बीच तीन चरणों में विधानसभा चुनाव होंगे। निर्वाचन आयोग (Election Commission) ने शुक्रवार को यह घोषणा की। मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार ने बताया कि मतगणना 4 अक्टूबर को होगी। साल 2019 में संविधान के अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्रावधानों को समाप्त किए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर में पहली बार विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। राज्य में आखिरी बार 2014 में विधानसभा चुनाव हुए थे।
1987 के जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव: धांधली, असंतोष और विद्रोह की नींव
1987 का जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव राज्य के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण और विवादित घटना है। इस चुनाव ने न केवल राज्य में राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया, बल्कि यह चुनाव कश्मीर घाटी में उग्रवाद और आतंकवाद की लहर को भी प्रेरित करने वाला साबित हुआ। आज हम 1987 के चुनाव की घटनाओं को समझने की कोशिश करेंगे और यह भी समझने की कोशिश करेंगे कि कैसे इस चुनाव ने घाटी में बंदूकों की एंट्री का रास्ता खोला।
मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट से चुनाव लड़ा था सैयद सलाहुद्दीन
1987 का चुनाव नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने गठबंधन में लड़ा। वहीं इसके विपक्ष में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (MUF) था। MUF, कश्मीर की स्थानीय मुस्लिम पार्टियों और समूहों का एक गठबंधन था, जो अलगाववादी विचारधारा से प्रेरित था। सैयद मोहम्मद यूसुफ शाह, जिन्हें अब सैयद सलाहुद्दीन के नाम से जाना जाता है, वह 1987 के विधानसभा चुनावों में MUF उम्मीदवार था। सैयद सलाहुद्दीन मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (MUF) के उम्मीदवार के रूप में श्रीनगर के दिल में स्थित अमीरा कदल सीट से चुनाव लड़ रहा था। यह आखिरी बार था जब सैयद सलाहुद्दीन ने नियंत्रण रेखा (LoC) पार करने और आतंकी संगठन हिज्ब-उल-मुजाहिदीन का नेतृत्व करने से पहले चुनावी प्रक्रिया में भाग लिया था।
मोहम्मद यूसुफ शाह एक धार्मिक उपदेशक था और श्रीनगर के सिविल सचिवालय के बाहर एक मस्जिद में शुक्रवार को उपदेश देता था और नमाज कराता था। 23 मार्च, 1987 को आखिरकार चुनाव हुए और लोग बड़ी संख्या में मतदान करने के लिए निकले। पहली बार कश्मीर में मतदान का प्रतिशत 80% तक पहुंच गया। ऐसा कहा जाता है कि यह चुनाव एक तरह से MUF के बैनर तले इस्लामवादियों के लिए एक जनमत संग्रह था। इसीलिए मतदान में भारी भीड़ उमड़ी। भारी मतदान और एमयूएफ उम्मीदवारों के प्रति सहानुभूति की लहर ने दिल्ली में कांग्रेस सरकार और श्रीनगर में उसकी सहयोगी एनसी को बेचैन कर दिया।
सैयद सलाहुद्दीन की हुई हार और ….
इसके बाद मतगणना का वक्त आया। लेकिन नतीजे कई दिनों तक विलंबित रहे और जब उन्हें अंततः घोषित किया गया, तो एमयूएफ के केवल चार उम्मीदवारों को जीतते हुए दिखाया गया। इनमें सैयद अली शाह गिलानी, सईद अहमद शाह (अलगाववादी नेता शब्बीर शाह का भाई), अब्दुल रजाक और गिलाम नबी सुमजी ही जीते। जबकि MUF ने मैदान में 44 उम्मीदवारों को उतारा था। आम धारणा यह थी कि दिल्ली और श्रीनगर दोनों की सरकारों ने एनसी-कांग्रेस को सत्ता में बनाए रखने के लिए परिणामों में हेराफेरी करने की साजिश रची थी।
मतगणना जब आगे बढ़ी, तो यह स्पष्ट हो गया कि रूढ़िवादी सैयद सलाहुद्दीन अपने प्रतिद्वंद्वी, नेशनल कॉन्फ्रेंस के गुलाम मोहिउद्दीन शाह से काफी आगे चल रहा था। सलाहुद्दीन की बढ़त का अंतर बढ़ने के साथ ही मोहिउद्दीन शाह निराश होकर मतगणना केंद्र से चले गए। हालांकि, उन्हें जल्द ही मतदान केंद्र पर वापस बुलाया गया, जहां उन्हें अमीरा कदल विधानसभा सीट का विजेता घोषित किया गया।
एक समय भारी अंतर से पिछड़ने के बाद मोहिउद्दीन शाह को 4,289 वोटों से विजेता घोषित किया गया। मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) और सलाहुद्दीन के समर्थकों ने मतगणना प्रक्रिया में हेराफेरी का आरोप लगाते हुए सुरक्षाकर्मियों के साथ झड़प की, जिसके बाद हंगामा मच गया। चुनाव के दौरान बड़े पैमाने पर धांधली की खबरें सामने आईं। आरोप थे कि सरकार ने मतदान प्रक्रिया को कंट्रोल किया और विपक्षी उम्मीदवारों को हराने के लिए अधिकारियों का दुरुपयोग किया। चुनाव परिणामों में, नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन ने बहुमत हासिल किया, जबकि MUF को अपेक्षित सीटें नहीं मिलीं। चुनावी धांधली के कारण MUF के कई समर्थकों में गहरा असंतोष फैला और उन्होंने लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अपना भरोसा खो दिया। धांधली के आरोपों की कभी कोई जांच नहीं की गई।
चुनाव के बाद सैयद सलाहुद्दीन, यासीन मलिक को हुई जेल
कश्मीर घाटी के कई हिस्सों – अनंतनाग, सोपोर, हंदवाड़ा और बारामुल्ला – में लगभग कर्फ्यू लगा हुआ था और विजयी फारूक अब्दुल्ला सरकार एमयूएफ के शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार करने में व्यस्त थी, जिससे धांधली और चुनावी हेराफेरी के आरोपों को बल मिला। सैयद सलाहुद्दीन और उसके कैंपेन मैनेजर यासीन मलिक और अन्य समर्थकों को बिना किसी आरोप के जेल में डाल दिया गया।
ऐसी खबरें थीं कि मोहम्मद यूसुफ शाह के प्रतिद्वंद्वी एनसी के गुलाम मोहिदीन शाह ने जेल के अंदर व्यक्तिगत रूप से उसकी पिटाई की। रिहा होने के तुरंत बाद, मलिक पाकिस्तान चला गया और बाद में आतंकवादी संगठन जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के प्रमुख के रूप में उभरा। एजाज डार ने हथियार उठाए और तत्कालीन डीआईजी अली मोहम्मद वटाली को उनके आवास पर निशाना बनाया और मार डाला। मोहम्मद यूसुफ शाह खुद पाकिस्तान चला गया और उसने ‘सैयद सलाहुद्दीन’ नाम अपना लिया। वह हिजबुल मुजाहिदीन के सुप्रीमो और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादी घोषित किया गया।
और कश्मीर में हुई बंदूकों की एंट्री
1987 के वसंत में चुनाव सैयद सलाहुद्दीन का भारत की चुनावी राजनीति में आखिरी प्रयास था। इसके बाद उसने वह जम्मू और कश्मीर को पाकिस्तान में विलय करने के उद्देश्य से हथियार उठा लिया। उसने कश्मीर घाटी में आतंक की बाढ़ लाने और किसी भी शांति वार्ता को बाधित करने की कसम खा ली। उसका चुनावी मैनेजर यासीन मलिक पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) चला गया और मुजफ्फराबाद स्थित आतंकी संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) का नेतृत्व करने लगा।
चुनाव के बाद कई अन्य कश्मीरी युवाओं ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (POK) की ओर रुख किया, जहां उन्हें आंतकवाद की ट्रेनिंग दी गई। यह वही समय था जब घाटी में बंदूकों की एंट्री होने लगी। पाकिस्तान ने इस असंतोष का फायदा उठाकर घाटी में आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए हथियारों की सप्लाई की, पैसे दिए और ट्रेनिंग भी दी। इन हथियारों का इस्तेमाल कर घाटी में उग्रवादी गतिविधियों की एक नई लहर शुरू हुई, जिसने आने वाले दशकों तक क्षेत्र को अस्थिर रखा।
जम्मू कश्मीर में कितनी बार हुआ चुनाव?
राज्य में 1951 से अब तक 11 बार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, जबकि 1967 से अब तक 12 बार संसदीय चुनाव हो चुके हैं। जम्मू कश्मीर का पहला विधानसभा चुनाव 1951 में हुआ था, जो राज्य के राजनीतिक इतिहास में महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इस चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने सभी 75 सीटों पर जीत दर्ज की थी, और शेख अब्दुल्ला को राज्य का प्रधानमंत्री चुना गया था।
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