सियाराम पांडेय ‘शांत’
इस विषम कोरोना काल में चिकित्सा पद्धति की श्रेष्ठता के सवाल पर पैदा विवाद चरम पर है। योग गुरु बाबा रामदेव ने एलोपैथ की आलोचना और आयुर्वेद की प्रशंसा कर इस विवाद की आग को हवा दे दी है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन उनसे बेहद नाराज है। उसने कोर्ट में बाबा राम देव के खिलाफ मानहानि का मुकदमा भी दर्ज कर दिया है।उनकी टिप्पणी को एलोपैथिक चिकित्सकों का अपमान बताया जा रहा है। न केवल उनकी गिरफ्तारी की मांग की जा रही है,बल्कि उनसे यह भी कहा जा रहा है कि वे अपने 5 विषय विशेषज्ञों के साथ आईएमए के डॉक्टरों के साथ बहस कर लें। लगे हाथ अपनी शिक्षा भी बता दें। दूसरी ओर बाबा रामदेव ने इंडियन मेडिकल एसोसिएशन से 25 सवाल पूछे हैं। उन्होंने तो यहां तक कहा है कि कोई माई का लाल उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकता। केंद्रीय स्वास्थ्यमंत्री डॉ. हर्ष वर्धन तक ने चिट्ठी लिखकर उनके बयान पर नाराजगी जाहिर की थी। दबाव बढ़ता देख रामदेव ने माफी तो मांग ली थी लेकिन इसके साथ ही इंडियन मेडिकल एसोसिएशन को पत्र लिखकर उन्होंने यह जानना चाहा था कि अमुक-अमुक रोग का क्या उनके पास स्थायी इलाज है? आईएमए ने उनके पत्र का जवाब तो नहीं दिया,अलबत्ते उन पर मानहानि का मुकदमा जरूर ठोंक दिया। उनके सहयोगी बालकृष्ण ने तो एलोपैथी के जरिए पूरे देश को ईसाई बनाने की साजिश किए जाने तक की बात कही है। इससे कांग्रेस भी बौखला गई है और उनकी नागरिकता का सवाल उठाने लगी है। उसका तर्क है कि बालकृष्ण को देश के मामले में बोलने का कोई हक नहीं है।
वैसे भी कांग्रेस का रामदेव विरोध किसी से छिपा नहीं है। उनका आयुर्वेद प्रेम कांग्रेस को न पहले रास आया था और न आज आ रहा है। सोनिया गांधी की विदेशी नागरिकता का मुद्दा सबसे अधिक बाबा रामदेव ने ही उठाया था। विदेशी धन के आंकड़े भी उन्होंने ही दिए थे।उनके आंकड़ों के आधार पर ही नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2014 में अपने चुनावी भाषण में कहा था कि विदेशी बैंकों में भारतीयों का इतना काला धन जमा है कि अगर वह आ जाए तो हर भारतीय नागरिक के खाते में 15 लाख रुपये डाले जा सकते हैं। विपक्ष हमेशा प्रधानमंत्री पर गलतबयानी के आरोप लगाता रहा है। यह पूछता रहा कि हर देशवासी को 15 लाख कब मिलेंगे? बाबा राम देव ने तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार में दिल्ली में आंदोलन भी शुरू किया था । यह और बात है कि गिरफ्तारी से बचने के लिए वे जनाना वेश धारण कर वहां से भाग खड़े हुए थे। उत्तराखंड सरकार में उनके संस्थान पर छापे भी पड़े थे। उनकी दवाओं की गुणवत्ता पर सवाल भी उठे थे। तत्कालीन हरीश रावत सरकार ने उनके औषधीय उत्पादों में अपमिश्रण जैसे आरोप भी लगाए थे।
यह सच है कि भाजपा सरकार आने के बाद स्वदेशी के नाम पर बाबा रामदेव का कारोबार खूब फला-फूला। बाबा रामदेव ने जो कुछ भी कहा है,जाहिर है,उसके पीछे के अपने कारोबारी निहितार्थ हैं लेकिन इस एक बिना पर सच को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता। इस कोरोना काल में इस बात पर बहस का कोई मतलब नहीं है कि कौन सी चिकित्सा पद्धति बेहतर है।जो मरीजों को स्वास्थ्य लाभ प्रदान कर सके,उसकी सहूलियतों में इजाफा कर सके,वही श्रेष्ठ है।कोरोना से निपटने में आयुर्वेदिक,होम्योपैथिक और यूनानी दवाएं भी समान रूप से कारगर हैं।विश्व स्वास्थ्य संगठन ने होम्योपैथिक चिकित्सकों को भी कोरोना का इलाज कराने की छूट दे दी है। इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि एलोपैथिक चिकित्सकों ने कोरोना मरीजों की दिन-रात सेवा की है। इस क्रम में बहुतेरे संक्रमित भी हुए हैं और मृत्यु को भी प्राप्त हुए लेकिन यह भी सच है कि कोरोना मरीजों को स्वस्थ रखने में दूसरी चिकित्सा पद्धति से जुड़े लोगों ने कम प्रयास नहीं किया।हालांकि उन्हें वह मान्यता,वह सम्मान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था। रही बात अधोमानक दवाओं की तो रेमदेसिविर जैसी दवाओं को भी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नकार दिया था और उसी ने बाद में उसके प्रयोग की अनुमति दी। वह भी तब जब लोग खुदबखुद उसका इस्तेमाल करने लगे।इस दवा में मिलावट तो आज तक हो रही है।
एलोपैथिक तत्काल राहत तो देती है लेकिन वह किसी भी रोग का स्थायी समाधान नहीं है। हृदय रोग,अस्थमा,सुगर,रक्तचाप के मरीजों को जिंदगी भर दावा खानी पड़ती है।एलोपैथिक दवा एक रोग को ठीक करती है, तो अन्य रोगों की उत्पत्ति की वजह भी बनती है।आयुर्वेद या अन्य चिकित्सा पद्धतियों में या तो साइड इफेक्ट नहीं हैं या नहीं के बराबर हैं। उत्तेजित होने से पूर्व एलोपैथिक चिकित्सकों को यह बात तो माननी ही होगी। मौजूद समय चिकित्सा पद्धतियों के बीच संघर्ष का नहीं,बल्कि कोरोना जैसी बीमारी को मात देने का है। आजकल जिसे देखिए,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अपने एक्सपर्ट कमेंट दे देता है,जबकि कुछ भी बोलने से पूर्व यह तो सोचा ही जाना चाहिए कि वह बोलने की योग्यता-दक्षता रखता भी है या नहीं। एक पक्ष यह भी है कि व्यक्ति पढ़ा हो या कढ़ा हो,अनुभव ज्यादा मायने रखता है।जब टीके का ईजाद नहीं हुआ था, तब भी और जब एक अरब 38 करोड़ की आबादी वाले देश में 20 करोड़ लोगों को ही टीका लगा है तब भी लोग आयुर्वेदिक और घरेलू नुस्खे अपना कर ही स्वस्थ हैं। इसलिए भी पद्धति के विवाद को बेवजह तूल देने से बेहतर होगा कि हर पैथी के जानकार अपने-अपने स्तर पर जनस्वास्थ्य की चिंता करे।यही समय की मांग भी है। हर पद्धति का अपना गौरवशाली इतिहास है। उसे बचाने और बढ़ाने का दायित्व निभाने की जरूरत है न कि अनावश्यक उलझने की।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)